Monday 6 September 2010

घृणा और प्रेम

दुनिया में केवल दो तरह की शक्तियां हैं एक घृणा की और दूसरी प्रेम की. कुछ लोग घृणा के भाव से ऊर्जा प्राप्त करते हैं तो कुछ प्रेम से. घृणा ने जहाँ विश्व में हिंसा, नरसंहार और विप्लवों का संचार किया है वहीँ प्रेम से शांति और नव सृजन का प्रसार हुआ है. धरती पर विशालतम साम्राज्यों की परिकल्पना और विश्व विजय की कामना दूसरों के प्रति घृणा और विद्वेश की भावना से उपजीं जिसने लाखों निर्दोषों का खून बहाया है. घृणा व हिंसा से लाया गया कोई भी परिवर्तन कभी स्थायी नहीं रहा. इतिहास साक्षी है की हिंस्र आतताईयों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो साधन अपनाये अंततः वे स्वयं भी उन्ही का शिकार हुए. उनके पतन के साथ उनके साम्राज्य भी बिखर गए. भय व हिंसा से किसी भी विचारधारा या सामाजिक व्यवस्था का पोषण नहीं हो सकता, किन्हीं परिस्थितियों में अल्पकालिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बल का प्रयोग न्यायसंगत ठहराया जा सकता है परन्तु उससे दीर्घकालिक लक्ष्य कभी नहीं पाए जा सकते. बिना प्रेम, सहिष्णुता, भ्रातृत्व और शांति के न्याय संभव नहीं है और न्याय के अभाव में मानवता की प्रगतिशीलता और कष्ट व त्रास मुक्त समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती.



घृणा के दार्शनिक, नैतिक व तार्किक पहलुओं का विश्लेषण तो कोई ज्ञानी या दृष्टा ही कर सकता है पर आपको यदि एक ओर घृणा, भय तथा हिंसा और दूसरी ओर प्रेम,शांति और सद्भाव के बीच में चुनाव करना हो तो आप क्या चुनेंगे? घृणा और भय के हिमायती भी अपने मत की कमजोरी को समझते हैं.  इसलिये उन्होंने भय और हिंसा को एक अल्पकालिक उपाय के रूप में प्रस्तुत किया और अपने अनुयाईयों को समझाया कि न्याय के हित में संघर्ष आवश्यक है और यह अंतिम युद्द  है, इसमें जीत गए तो हम अमर हो जायेंगे और धरती पर स्वर्ग उतर आएगा.

परन्तु युद्दों का कभी अंत नहीं हुआ, न ही धरती पर स्वर्ग उतरा. युद्द छेड़ने वाले ज़रूर मिट गए. मंगोल, मसेदोनियन, तुर्क, रोमन, मिस्री आदि ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जिन्होनें तलवार के बल पर विशाल साम्राज्यों की नींव रखीं पर उन्हें स्थायित्त्व प्रदान नहीं कर सके. उनके नगर व प्रासाद ढह गए और उनका कोई नामलेवा न रहा. दूसरी ओर भ्रातृत्व और प्रेम का सन्देश देने वाले संतों की समाधियों पर आज भी लाखों लोग श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं. यह बात अलग है की उनके जीते जी उनकी बातें किसी ने नहीं मानीं. समस्या यह है की घृणा व हिंसा का रास्ता अपनाना सुगम है जब की प्रेम का मार्ग कठिनाइयों से भरा हुआ है.  इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब को लोगों के विरोध के कारण मक्का छोड़ कर जाना पड़ा था. ईसा मसीह जो सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ा रहे थे, यहूदी कठमुल्लों और रोमन शासकों को इतने घातक लगे की उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया. डॉ० मार्टिन लूथर किंग जूनियर का  अश्वेतों के अधिकारों के लिए लड़ना और उनका समानता और भाईचारे का सन्देश श्वेत अतिवादियों को इतना नागवार गुज़रा कि उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी. कुछ इसी तरह हमारे अपने राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी के प्रेम, अहिंसा, शांति और समानता के पाठ से कुछ लोग इतने भयभीत हो गए कि उन्हें  शहीद होना पड़ा. समाज में समरसता और समानता लाने के लिए किये गए सिख गुरुओं के बलिदान को कौन भूल सकता है?

हिंसा के प्रणेता प्रेम और अहिंसा को दुर्बलता व कायरता मानते हैं. पर हमने देख लिया है कि प्रेम और अहिंसा को अपनाने के लिए ज़्यादा साह्स की आवश्यकता है. यह प्रकृति का गुण है कि कोई भी प्राणी अपने शत्रु पर तभी आक्रमण करता है जब वह डरा हुआ हो. कुछ राजनेताओं ने इस गुण को बहुत खूब समझा है और अपने अनुयायियों के भय को अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने का ज़रिया बनाया है.  इस भय के रास्ते हिंसा को जायज़ ठहराया है और उसकी सहायता से राजनैतिक सत्ता प्राप्त की है. रोम को बर्बर जातियों का भय था, यूनान को रोम का भय था, योरोप को मंगोलों का भय था, नाज़ियों को यहूदियों का भय था, किसी को साम्यवादियों का भय था तो किसी को अमरीकियों का भय था, कोई इस्लाम से डर गया तो कोई हिंदुत्व से. यहाँ तक कि लोग गाँधी, मंडेला और किंग से डर गए, लिंकन, केनेडी और दलाई लामा तक से डर गए. इस डर ने कितना रक्त बहाया, कितनी तबाही फैलाई, ग़रीब, कमज़ोर और असहाय लोगों को कितना कितना कष्ट दिया यह हमसे छुपा नहीं है. पर दु:ख की बात है कि हमने डरना और घृणा करना नहीं छोड़ा और इसका नतीजा यह है कि आज अल क़ायदा जितना अमरीका से नहीं डरता उतना दुनिया के ग़रीब मजदूरों, बूढों, बच्चों और औरतों से डरता है, इसीलिये उसके बम इन्हीं के बीच फटते हैं, इन्हीं का खून बहता है. सार्वभौमिक प्रेम, सहिष्णुता, भ्रातृत्व, शांति और अहिंसा के लिए इससे बड़ी अपील कभी नहीं की जा सकती, हमें बस अपना दिल थोडा और बड़ा ही तो करना है...